कभी कभी मैं सोचता हूँ की क्या इन्टरनेट पे व्यक्त किये हमारे उद्गार उन तक पहुँच पाते हैं जिनके लिए ये सारा शोर होता है.....हम बहस करते हैं,अपना नजरिया रखते हैं,कोई सहमत होता है,किसी का ख्याल एकदम जुदा होता है...हम एक दुसरे को गलत ठहराते हैं,समर्थन करते हैं.पर क्या हमारी सरकार को कोई फर्क पड़ता है?........एकदम नही.हाँ कभी किसी राजनेता पर व्यक्तिगत प्रहार करो,तब जरूर बवाल होता है,और कई बार हुआ भी है.....कौन कहता है कि लोकतंत्र में आम जनता का शासन होता है?मुझे ये बात किताबो में ही सच मालूम पड़ती है.....जैसे बेतिया में आम जनता लाइन में घंटो खड़े होकर अपना बिजली बिल जमा करती है...और हमेशा बिजली कि कमी का रोना रोती रहती है....वही प्रशासनिक अधिकारियो को निर्बाध आपूर्ति मिलती है......सरकार उन्हें बिजली के बिल का पैसा देती है...लेकिन जमा करने के लिए शायद किसी को नियुक्त नही करती...और कितनो पर तो सालों से बिल बकाया है,क्या कभी उनकी आपूर्ति रुकी?...नही।
अभिजात्य वर्ग का दबदबा हमेशा कि तरह अभी भी पुलिस,प्रशासन पे बरकरार है...तो क्या हम इसे आँख मूंदकर सामंतवाद कि समाप्ति माने?
मुझे नही लगता.आप क्या सोचते हैं......कि लोकतंत्र और सामंतवाद एक साथ प्रभावी हो सकते हैं?
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